- Newziya
फूट पड़ा भीतर भरा खुशियों का कुम्भ
डॉ. धनंजय चोपड़ा
हम सब के सामने एकबार फिर वही दृश्य दिखा. शहर की हर सड़क पर कतारबद्ध श्रद्धालुओं के जत्थे संगम तट पर बसी कुम्भ नगरी की ओर जाते रहे. ऐसा लग रहा था कि मानो पूरा देश यहां सिमट गया हो. हर कोई जयकारे लगा रहा था और आगे बढ़ता जा रहा था. कुम्भ नगरी पहुंचने की उत्सुकता हर किसी में साफ़ झलक रही थी. उल्लास का ये क्षण छह बरस बाद सबके ख़ाते में आया है. इंतजार की घड़ियों को कैसे बिताया है कोई श्रद्धालुओं से पूछकर तो देखे. यही कारण है कि संगम तट पर पहुंचने के लिए हर कोई जल्दी में था. उत्साह - उल्लास इतना की भीतर भरा हुआ ख़ुशियों का कुम्भ बस फूट ही पड़ेगा.

शहर और शहर के लोगों की भी बात निराली है. बरस भर से भी ज़्यादा शहर को संवारने में अपनी सहूलियतों को दांव पर लगा दिया. तब कहीं जाकर शहर को नया रंग ढंग मिल पाया. कहीं कोई रोष नहीं, किसी पर कोई दोष नहीं. हर कोई पलक पावड़े बिछाए दूर देश से आए हर श्रद्धालु का स्वागत करने लगा. मानो बस इसी पल का इंतजार था. कोई चाय बांट रहा है तो कोई सब्जी पूड़ी. किसी को रास्ता बताने में मज़ा आ रहा था तो किसी को पुलिस संग ट्रैफिक संभालने में.
संगम तट अपनी धार्मिक सामाजिक आभा के साथ आकर्षित करता है. धर्म आकाश के सभी चमकते सितारे अपनी अपनी पेशवाई के साथ अवतरित हो चुके हैं. गंगा-यमुना की लहरों की ध्वनियों के संग मंत्रोच्चार शब्द तरंगित हो रहे हैं. धर्म, राजनीति, बाजार, समाज और सबकुछ अपने अपने ढंग से कुम्भ को सजाने में लगा है. अर्ध कुम्भ से कुम्भ होने का सुख उठा रहा है. यह मेला तकनीक के साथ जुगलबंदी करके सबको अपने साथ जोड़े रखने की जुगत भिड़ाए हुए है.